Sunday, 20 October 2019

ज़रा फुर्सत मिले तो

ज़रा फुर्सत मिले तो एक बार सोच लेना,
तुम तो चली गई मेरी ज़िंदगी से।
मुझे तन्हा छोड़ गई,
अकेले जीने को।
कितना आसान था ना,
दिल लगा के तोड़ जाना।
बीच मझधार में छोड़ जाना,
ज़िन्दा रह के भी ज़िन्दगी को बेरंग कर जाना।

बहुत आसान होता है ना,
छोटी छोटी बातों पर  गलतफहमी पैदा कर लेना।
आखिर एक दिन,
गलतफहमी कत्ल कर देती है रिश्तों का।
कुछ कपड़े ही तो लेने थे,
और हमेशा के लिए ज़िन्दगी के लिए चली गयी।
मैं भी विस्मित होकर देखता रहा,
पर अल्फ़ाज़ भी मानो कम पड़ गए थे।
रिश्तो का कत्ल हो रहा था,
और लोग तमाशबीन थे।

काश तुम रुक जाती उस दिन,
तो शायद तन्हा राते न गुजरती।
दिन का क्या है,
दोस्त यार ही दिल लगा देते है।
पर रातें में,
घुट घुट के रोता हूँ।
हाँ डरता हूँ मैं,
अपने तन्हाई से।

तुम थी ज़िन्दगी में तो,
घर था, और उस घर में प्यार था।
जो कुछ था,
वही पर्याप्त था ज़िन्दगी में।
भले कुछ ना था चारदीवारी में,
पर वो घर था।

तुम क्या गयी ज़िन्दगी से,
मानो ज़िन्दगी जीने का सलीखा ही भूल गया।
डगमगा सी गयी ज़िन्दगी,
प्यार क्या चीज़ होता है,
मैं उसको भूल गया,
सब कुछ राह के भी,
मैं भिखारी रह गया।

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